सोमवार, 16 सितंबर 2013

आदमखोर समय में


आरसी चौहान



इधर जब भी
लिखने चला हूँ कविता
कलम हँसी है ठठाकर
मेरी बेवकूफी पर
जल रही है जब सारी दुनिया
लिखने चले हैं कविता
कुछ देश दूसरे देशों का
नोच लेना चाहते हैं चेहरा
कुछ समुद्र दूसरे समुद्रों में
गड्ड-मड्ड होकर
लील लेना चाहते हैं द्वीप
और आदमी है कि पढ़े
जा रहा है कविता
लिखे जा रहा है कविता
खोज रहा है कविता में नया हथियार
जिसमें न दिखे दूर तलक
पुराने हथियार
सिर्फ की बोर्ड पर टंके अक्षरों की तरह
दबाया जा सके
कविता का कोई भी अक्षर या शब्द
और आदमी खड़ा हो जाये
आदमी के विरूद्ध
काट सके आदमी
आदमी को
जैसे-काटता है लोहे को लोहा
और अब ये कि सारी कल्पनाओं से परे
आदमखोर बाघों-से समय में
हरी घास में हिरन के शावक-सा
बच के निकल आती ही है कविता
अपने हाथों में 
जलती मशालें लिए हुए।

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