गुरुवार, 21 मई 2015

मेरी चिंताएं : आरसी चौहान



 











आरसी चौहान

मेरी चिंताएं
मैं चिंतित हूं
इसलिए नहीं कि
वह लकड़ियां काटता है
कागज बटोरता है
और लुप्त हो जाता है
कबाड़ों के ढेर में
मैं चिंतित हूं
इसलिए नहीं कि
वह पत्थर तोड़ता है
मिट्टी गोड़ता है
और जला डालता
तेंदू के लपेटे पत्तों से
अपना फेफड़ा


मैं चिंतित हूं
इसलिए नहीं कि
वह ठेला ढकेलता है
नाली साफ करता है
रिक्शा चलाता है
और सहता अनगिनत रौंब
तमाचों का हिसाब नहीं

मैं चिंतित हूं
इसलिए नहीं कि
वह ईंट जोड़ता है
चूनाकली करता है
और चुन जाता कंक्रिटों के जंगल में

मैं चिंतित हूं
इसलिए नहीं कि
युवाओं को ओढ़ा दिया जाता
चादर बेरोजगारी का
और छिड़क दिया जाता
तेजाब अन्याय का
जो रिसता हुआ पहुंच जाता
संगीन जख्मों पर
और युवा बेरोजगार पिघल जाते
पृथ्वी की गुप्त गुफाओं में
जिसका किसी किताब में जिक्र नहीं
क्योंकि
ये किसी गरीब बाप के
बेरोजगार बेटे हैं।


संपर्क   - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)

राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com

 

रविवार, 26 अप्रैल 2015

कितना सकून देता है-आरसी चौहान




                                                            आरसी चौहान 

आसमान चिहुंका हुआ है
फूल कलियां डरी हुई हैं
गर्भ में पल रहा बच्चा सहमा हुआ है
जहां विश्व का मानचित्र
खून की लकिरों से खींचा जा रहा है
और उसके ऊपर
मडरा रहे हैं बारूदों के बादल
ऐसे समय में
तुमसे दो पल बतियाना
कितना सकून देता है।


संपर्क   - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121  
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मंगलवार, 24 मार्च 2015

उनकी नजर में : आरसी चौहान




                             आरसी चौहान 

उनकी नजर में

हम बनाते हैं महल 
 
वो करते हैं आराम 
 
हम बनाते हैं कानून  

वो जारी करते हैं फरमान
 
हम उगाते हैं फसल
 
वो काटते हैं सोना
 
हम बनाते हैं जहाज
 
वो उड़ाते हैं जहाज
 
हम बनाते हैं कश्तियां
 
वो तैराते हैं नाव
  
हम उगाते हैं मूसली
 
वो बनाते हैं वियाग्रा
  
और किसी सेलिब्रेटी के बिकनी पर
   
करते विर्यपात 

जैसे उनकी नजर में 
 
सारी दुनिया नामर्द हो गयी है

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राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121  
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शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

पहली नहीं थी वह -आरसी चौहान









                               आरसी चौहान

उसे नहीं मालूम था
सपनों और हकीकत की दुनिया में फर्क
जब उसे फूलों की सेज से 
उतारा गया था बेरहमी से
घसीटते हुए
वह समझती
उस यातना का नया रूप
मुंह खुल चुका था छाता सा
और उसकी सांसे
टंग चुकी थी खूंटी पर
यातना के तहत
जिसके सारे दस्तावेज जल चुके थे
और वह राख में
खोज रही थी
अपनी बची हुई हड्डियां
उस हवेली में बेखबर 
यातना की शिकार
पहली नहीं थी वह ।  

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गुरुवार, 22 जनवरी 2015

एक विचार : आरसी चौहान





 











(हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं पढ़ते हुए)

एक विचार

जिसको फेंका गया था

टिटिराकर बड़े शिद्दत से निर्जन में

उगा है पहाड़ की तरह

जिसके झरने में अमृत की तरह

झरती हैं कविताएं

शब्द चिड़ियों की तरह

करते हैं कलरव

हिरनों की तरह भरते हैं कुलांचे

भंवरों की तरह गुनगुनाते हैं

इनका गुनगुनाना

कब कविता में ढल गया और

आदमी कब विचार में

बदल गया

यह विचार आज

सूरज-सा दमक रहा है।




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शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

पेटेंट:आरसी चौहान




          आरसी चौहान
पहले यवन, पह्लव, शक और कुषाण आये
और अपने-अपने तरीके से
भारत को पेटेंट कराना चाहे
फिर पुर्तगाली, डच ,फ्रांसीसी
और ब्रिटिश आये
पेटेंट का नया फार्मूला अपना
हमें कई खण्डों में बांटकर
कूटनीतिक चाल से
हथियाना चाहे
तब हम अर्द्धखामोश थे
हमारी चेतना जगी क्या
कि हमारी  जड़ी- बूटियों को
पेटेंट कराया
बासमती चावल, हल्दी ,नीम व
वेद- पुराण के नामों को
पेटेंट कराया
अब वो दिन दूर नहीं
जब वे मेरी भाषा- संस्कृित और
अस्मिता को पेटेंट कराएंगे
और घुसते चले आएंगे
हंसते आंगन में
प्रायोजक की तरह
छुएंगे अपने -अपने तरीके से
बहू -बेटियों के अनछुए अंग
और जब तक हम न्यायालय में
याचिका दाखिल करेंगे
तब तक घर की बहुएं लूट चुकी होंगी
और उनकी अस्मिता
बालू की भित्ति की तरह ध्वस्त।
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रविवार, 23 नवंबर 2014

बेर का पेड़-आरसी चौहान



                             आरसी चौहान

मेरा बचपन
खरगोश के बाल की तरह
नहीं रहा मुलायम
ही कछुवे की पीठ की तरह
कठोर ही

हाँ मेरा बचपन
जरूर गुजरा है
मुर्दहिया, भीटा और
मोती बाबा की बारी में
बीनते हुए महुआ, आम
और जामुन

दादी बताती थीं
इन बागीचों में
ठाढ़ दोपहरिया में
घूमते हैं भूत-प्रेत
भेष बदल-बदल
और पकड़ने पर
छोड़ते नहीं महिनों

  
कथा किंवदंतियों से गुजरते
आखिर पहुँच ही जाते हम
खेत-खलिहान लाँघते बागीचे
दादी की बातों को करते अनसुना

आज स्मृतियों के कैनवास पर
अचानक उभर आया है
एक बेर का पेड़
जिसके नीचे गुजरा है
मेरे बचपन का कुछ अंश
स्कूल की छुट्टी के बाद
पेड के नीचे
टकटकी लगाये नेपते रहते
किसी बेर के गिरने की या
चलाते अंधाधुंध ढेला, लबदा

कहीं का ढेला
कहीं का बेर
फिर लूटने का उपक्रम
यहाँ बेर मारने वाला नहीं


बल्कि लूटने वाला होता विजयी
कई बार तो होश ही नहीं रहता
कि सिर पर
कितने बेर गिरे
या किधर से लगे
ढेला या लबदा

आज कविता में ही
बता रहा हूँ कि मुझे एक बार
लगा था ढेला सिर पर टन्न-सा
और उग आया था गुमड़
या बन गया था ढेला-सा दूसरा
बेर के खट्टे-मीठे फल के आगे
सब फीका रहा भाई
यह बात आज तक
माँ-बाप को नहीं बताई
हाँ, वे इस कविता को
पढ़ने के बाद ही
जान पायेंगे कि बचपन में


लगा था बेर के चक्कर में मुझे एक ढेला
खट्टा, चटपटा और
पता नहीं कैसा-कैसा
और अब यह कि
हमारे बच्चों को तो
ढेला लगने पर भी
नहीं मिलता बेर
जबसे फैला लिया है बाजार
बहेलिया वाली कबूतरी जाल
जमीन से आसमान तक एकछत्र।



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